Supreme Court Decision:हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जो माता-पिता की संपत्ति पर बच्चों के अधिकार और कर्तव्य दोनों को लेकर एक नई दिशा तय करता है। कोर्ट ने साफ कहा कि यदि संतान अपने माता-पिता की देखभाल नहीं करती है, तो माता-पिता उन्हें दी गई संपत्ति वापस ले सकते हैं।
फैसले की पृष्ठभूमि
यह मामला उर्मिला दीक्षित बनाम सुनील शरण दीक्षित से जुड़ा हुआ है। उर्मिला दीक्षित ने 1968 में खरीदी गई अपनी संपत्ति 2019 में गिफ्ट डीड के जरिए अपने बेटे को दे दी थी। शर्त यह थी कि बेटा उनकी देखभाल करेगा। लेकिन बाद में बेटे ने ना केवल उपेक्षा की बल्कि दुर्व्यवहार भी किया। इसके बाद उर्मिला दीक्षित ने संपत्ति की वापसी की मांग की।
न्यायालय का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की पीठ – न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार और न्यायमूर्ति संजय करोल – ने 2 जनवरी 2025 को फैसला सुनाते हुए कहा कि:
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अगर कोई बुजुर्ग अपनी संपत्ति इस शर्त पर देता है कि उनकी देखभाल की जाएगी और यह शर्त पूरी नहीं होती, तो वह संपत्ति वापस ली जा सकती है।
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यह फैसला वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम 2007 की धारा 23 के तहत सुनाया गया है।
धारा 23 क्या कहती है?
इस धारा के अनुसार:
यदि कोई वरिष्ठ नागरिक अपनी संपत्ति इस भरोसे पर देता है कि उसे बुनियादी सुविधाएं मिलेंगी और देखभाल की जाएगी, और यदि यह नहीं होता है, तो यह संपत्ति का धोखाधड़ीपूर्ण हस्तांतरण माना जाएगा और इसे रद्द किया जा सकता है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि यह जरूरी नहीं कि देखभाल की शर्त लिखित रूप में हो। अगर परिस्थितियों से यह सिद्ध होता है कि यह शर्त मौन रूप से मानी गई थी, तो भी संपत्ति वापसी का अधिकार बनता है।
कानूनी अधिकारों के साथ नैतिक कर्तव्य भी जरूरी
यह फैसला केवल कानून की व्याख्या नहीं, बल्कि समाज को एक संदेश भी है:
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माता-पिता की सेवा केवल एक नैतिक जिम्मेदारी नहीं, अब यह कानूनी बाध्यता भी है।
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संतान को यह समझना होगा कि संपत्ति सिर्फ पाने का अधिकार नहीं है, बल्कि इसके साथ देखभाल और सम्मान की जिम्मेदारी भी जुड़ी होती है।
वरिष्ठ नागरिकों को मिला नया हक
इस फैसले से बुजुर्गों को कई तरह के लाभ मिल सकते हैं:
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अब वे संपत्ति देते समय देखभाल की शर्तें साफ-साफ लिखवा सकते हैं।
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यदि बच्चे उन्हें नजरअंदाज करते हैं, तो वे सीधे न्यायाधिकरण में शिकायत कर सकते हैं, जहां से उन्हें तेजी से न्याय मिल सकता है।
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यह निर्णय बुजुर्गों के अधिकारों को मजबूत बनाता है और पारिवारिक संबंधों को भी बेहतर बनाने में मदद कर सकता है।
सामाजिक प्रभाव
आज के समय में जब संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, और बुजुर्ग अकेले पड़ते जा रहे हैं, यह फैसला एक आशा की किरण है। इससे बुजुर्गों को यह भरोसा मिलेगा कि वे कानून के तहत अपने अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय केवल एक कानूनी फैसला नहीं, बल्कि सामाजिक सुधार की दिशा में एक ठोस कदम है। यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि बुजुर्गों की सेवा और देखभाल अब सिर्फ जिम्मेदारी नहीं, बल्कि कानूनन अनिवार्य भी है।
यदि कोई संतान अपने माता-पिता की अनदेखी करती है, तो उन्हें दी गई संपत्ति को वापस लिया जा सकता है। यह निर्णय न केवल बुजुर्गों के लिए राहत है, बल्कि पूरे समाज को एक चेतावनी भी देता है – माता-पिता की सेवा करना सिर्फ संस्कार नहीं, अब एक कानूनी कर्तव्य भी है